क्यों...? भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं... क्या उस प्रसाद को वे खाते हैं..? Why ...? Offer offerings to God... do they eat that offering...?
नमस्कार! रीडर्स,
आज के इस पोस्ट में हम बात करेंगे कि क्यों हम भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं, और जो प्रसाद हम भगवान को चढ़ाते हैं क्या उसे वे खाते हैं। और यदि खाते हैं , तो घटता क्यों नहीं...?
आज के इस पोस्ट में हम बात करेंगे कि क्यों हम भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं, और जो प्रसाद हम भगवान को चढ़ाते हैं क्या उसे वे खाते हैं। और यदि खाते हैं , तो घटता क्यों नहीं...?
भगवान को प्रसाद क्यों चढ़ाते हैं...?
प्रभु की कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना कृतज्ञता प्रकट करने के साथ मानवीय सद्गुण भी है। भगवान को भोग लगाकर ग्रहण किया जाने वाला अन्न दिव्य माना जाता है। भगवान को प्रसाद चढ़ाना आस्तिक होने के गुण को परिलक्षित करता है।
प्रभु की कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना कृतज्ञता प्रकट करने के साथ मानवीय सद्गुण भी है। भगवान को भोग लगाकर ग्रहण किया जाने वाला अन्न दिव्य माना जाता है। भगवान को प्रसाद चढ़ाना आस्तिक होने के गुण को परिलक्षित करता है।
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क्या जो प्रसाद भगवान को चढ़ाया जाता है, उस प्रसाद को वे खाते हैं। यदि खाते हैं तो घटता क्यों नहीं....?
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण चंद्र जी कहते हैं कि जो कोई भक्त प्रेम पूर्वक फूल, फल, अन्न, जल आदि अर्पण करता है। उसे मैं प्रेम पूर्वक सगुण रुप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं। भक्त की भावना हो तो भगवान एक बार नहीं बल्कि अनेकों बार उपस्थित होकर भोजन ग्रहण करते हैं प्रमाण स्वरूप द्रोपति, शबरी, विदुर, सुदामा आदि।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण चंद्र जी कहते हैं कि जो कोई भक्त प्रेम पूर्वक फूल, फल, अन्न, जल आदि अर्पण करता है। उसे मैं प्रेम पूर्वक सगुण रुप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं। भक्त की भावना हो तो भगवान एक बार नहीं बल्कि अनेकों बार उपस्थित होकर भोजन ग्रहण करते हैं प्रमाण स्वरूप द्रोपति, शबरी, विदुर, सुदामा आदि।
भगवान ने प्रेम पूर्वक इनके हाथों भोजन किया मीराबाई के विष का प्याला भगवान स्वयं पी गए कुछ लोग तार्किक बुद्धि का उपयोग करते हुए कहते हैं कि जब भगवान खाते हैं तो चढ़ाया हुआ प्रसाद क्यों नहीं घटता उनका कथन सत्य भी है।
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जिस प्रकार पुष्पों का भ्रमर बैठते हैं और पुष्प की सुगंध से तृप्त हो जाते हैं किंतु पुष्प का भार नहीं घटता उसी तरह भगवान की सेवा में चढ़ाया गया प्रसाद होता है। व्यंजन की दिव्य सुगंध और भगवान के प्रेम से ही भगवान तृप्त हो जाते हैं। इस तरह भगवान तृप्त भी हो जाते हैं आप प्रसाद भी नहीं करता।
अब इस बात में कितनी सच्चाई है, ये तो सच में ऊपर वाले ही जाने। लेकिन ये सभी बातों का हमारे धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख देखने, पढ़ने, और सुनने को मिलता है।
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धन्यवाद!
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